संशय


संशय से बड़ी बर्बादी कोई नहीं करता जहाँ तक हो सके इससे दूरी भली ।
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संशय ही बचाता भी है कई बार बर्बाद होने से
इसलिए यह ज़रूरी भी।
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संशय समाधान नहीं देता लेकिन
मोड़ देता है नज़रिए को विपरीत दिशा में।
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यह सकारात्मक सुख भी देता है तो गहरी चोट भी
इसे अनुपात में रखना अति आवश्यक।
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संशय ने ही बचाए हैं बड़े-बड़े अपराध और यही वजह भी बना कई बेगुनाहों के दर्द की।
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संशय होना चाहिए या नहीं, यह कौन तय कर सकेगा।
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जीने के लिए चाहिए जितनी ऑक्सीजन
उतनी ही ज़रूरत है संशय की
क्योंकि खेल सारा संतुलन का है !
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तुम मेरी आत्मा का सुख हो।


तुम मेरी आत्मा का सुख हो ।


पहली मुलाकात में ही आत्मा जुड़ गई थी
जबकि मन अपनी धुरी पर अपने अनुसार चलता रहा
आत्मा तब भी शांत, सुख और सुकून से भरी हुई
प्रतीक्षा करती रही
कि एक दिन मन भी समझ जाएगा।


आत्मा से अधिक धैर्य कहीं नहीं
न ही उससे अधिक कुछ भी मूल्यवान।


मन और शरीर बेवजह घिरा रहता है आडंबरों में
आत्मा के पास सिर्फ सुख है, प्रेम है और गुरुत्वाकर्षण भी
जो खींच लेती है खुद की ओर
कर देती है सर्वस्व समर्पित।

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ज़ख्म और दर्द महबूब हैं


सूखे हुए ज़ख्म भीतर से ताजे रहते हैं
गलती से छिड़ जाएं तो दर्द रिसने लगता है।
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दर्द को आता है ज़ख्म के भीतर छुपना
ज़ख्म दिख भी जाए, दर्द नहीं दिखता है।
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दर्द देने वाले को नहीं मालूम
कि दर्द किस हद तक बर्दाश्त किया जा सकता है।
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दर्द सहने वाला हर दिन करता है ज़ख्म पट्टी
कई बार ज़ख्म, न भीतर से सूखता है न ऊपर से।
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चोट पर चोट ज़ख्म को मुस्कुरा कर और कभी
हँसी के छल्लो में उड़ाकर जीना सिखा देती है।
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वह नम आँखें देखकर खिलखिला रहा था
वह हताश आँखो से उसे देख कर मुस्करा रही थी।
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प्रेम न होगा तो …


आप चीख कर कहें या कान में आहिस्ता से
प्रेम न होगा तो आपका कहा सुनाई न पड़ेगा।


उसकी गर्दन को देखकर
चूम लेने का ख़याल आया ही नहीं था
बल्कि तस्वीर में उसकी गर्दन पर
अनगिनत बोसे रखे भी थे लेकिन वह तस्वीर थी।


किसी को पा लेना क्या होता है
यह भी अबूझ ही है
जिसे आप सर्वस्व सौंप देते हैं
ज़रूरी नहीं कि वह इसे आपको पा लेना समझे
सभी के प्रयोजन अलग होते हैं।


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मिट्टी सब दाग़ खुद ले लेती है


चमकती हुई बटुई को देखकर नहीं कह सकते कि यह भी चढ़ती है चूल्हे पर 
बटुई पर लिपटा हुआ मिट्टी का लेप जलता है 
और हो जाता है बदसूरत
मिट्टी सिर्फ गर्माहट पहुंचने देती है भीतर तक 
ताकि पक सके स्वादिष्ट पकवान।
खाने की मेज तक कभी नहीं पहुंचती बटुई
चमकती रहती है रसोई में शान से
और मिट्टी ?
वह कभी किसी को नज़र नहीं आती 
मिट्टी सब दाग़ खुद ले लेती है।

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मेरा पहला उपन्यास ‘ बेहटा कलाँ ‘


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आप सभी की शुभकामनाओं से मेरा उपन्यास प्रकाशित हो गया है🙏

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जादू भ्रम है


जादू भ्रम है और कविताएँ हक़ीक़त ।
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कविता को नहीं आती हाथ की सफ़ाई
वह भ्रम को ख़त्म कर देती है।
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उसे उसकी कविताओं से प्रेम था
वो बड़ा जादूगर था उसने बहुत जादू किये।
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वह कविताओं में डूबी रही
वह जादू करता रहा।
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जिस दिन उसके सारे जादू ख़त्म हो गए
उस दिन सबसे बड़ा जादू हुआ
वह जादू को सच और कविता को जादू मान चुकी थी।
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जादूगर खुश था नए जादू के इजात से
जादू की ऐसी कीमत उसे पहले न मिली थी।
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वरेण्य सरस्वती-पुत्र डॉ.शिव मंगल सिंह सुमन


वरेण्य सरस्वती-पुत्र डॉ.शिव मंगल सिंह सुमन का पैत्रक निवास ग्राम झगड़पुर (उन्नाव ) मेरे ग्राम सरायं मंगली से मात्र १६ कि.मी .दूर है । २१ मार्च १९९३ का दिन था . पिता जी ने कहा-सुमन जी आए हुए हैं,चलोगी तो नहीं . मै बी.ए. की विद्यार्थी थी . पिता जी के साथ झगड़पुर पँहुच गई . मन में तरह-तरह की की भाव तरंगे उठ रही थीं की इतना बड़ा साहित्यकार कैसा होगा ? हमारा उनके दरवाजे पर पँहुचना और उनका अपने घर से बाहर निकलना, संयोग से एक साथ हुआ .हमने उन्हें प्रणाम किया ,उन्होंने हमारा परिचय पूछा ।हम चारपाई पर बैठ गए और वो सामने रखी कुर्सी पर . जलपान हुआ साथ ही चाय पान भी. सुमन जी ने मुझसे पूछा की मुझे कभी पढ़ा है . मैंने हाईस्कूल कक्षा में पढ़ी उनकी रचना की एक पंक्ति सुना दी -” इतिहास न तुमको माफ़ करेगा याद रहे,पीढियां तुम्हारी कथनी पर पछताएँगी ” सुमन जी प्रसन्नता से गदगद . घरेलू और सामाजिक हालचाल के विमर्श के बाद पिता जी ने सुमन जी से कुछ ऐसी चर्चा कर दी कि वे बोले लो सुनो – “हार में क्या जीत में /किंचित नहीं भयभीत मै /संघर्ष पथ पर जो मिले / यह भी सही वह भी सही /हार मानूँगा नहीं/ वरदान मांगूंगा नहीं .” और अब वे अपनी पूरी रौ में आ गए थे . निराला विरचित ” राम की शक्ति पूजा ” के कुछ अंश उन्होंने सुनाए और यह भी बताया कि निराला जी इस कविता को लगभग इसी शैली में सुनाते थे – मुझसे इक्कीस . काव्य पाठ करते हुए सुमन जी को देखना-सुनना एक विराट अनुभव था . उनकी ज़ुल्फें, उनकी भौंहें ,उनकी आँखें भी उनके साथ-साथ मुदित रहते थे . उनके फड़कते हुए नासापुट ,लरजते हुए होंठ ,धवल दन्त पंक्ति ,स्वरों का आरोह-अवरोह तथा आंगिक संचालन अद्भुत वशीकरण लिए हुए था .’नैकु कही बैननि,अनेकु कही सैननि’ कि पंक्ति प्रत्यक्ष हो रही थी .एक अपूर्व एकांकी का मंचन हो रहा था .सुदूर अंतरिक्ष में कुछ निहारते उनके जल भरे नेत्रों को देख कर लग रहा था जैसे श्री राम उनके सामने ही पूजन कर रहे हों और वो उसका प्रत्यक्ष वर्णन हमे सुना रहे हों .
थोड़ी देर बाद मुझसे मुखातिब हुए और कहा तुम तो मुझे ब्याज में मिली हो, आज तुमसे ही बात करनी है. कुछ पूछना है ? मै इस तैयारी से तो गई ही नहीं थी फिर भी उनसे जो दो चार बातें कर सकी – वे प्रस्तुत हैं –
इंदु : भगवान श्री राम के बारे में आप क्या कहेंगे ? (उस समय विश्व हिन्दू परिषद का शिला पूजन आन्दोलन जोरों से चल रहा था )

सुमन जी : भगवान श्री राम तो भारतीय संस्क्रति कि प्राण धारा हैं . आदर्श और मर्यादा के जीवन मूल्य उनको पाकर धन्य हो गए हैं . अफ़सोस तो यह है कि जिन श्री राम ने सोने कि लंका को जीतने के बाद भी उसे अपने राज्य में विलीन नहीं किया और वहां से सोने का एक छल्ला तक अयोध्या नहीं लाये थे – उन्ही श्री राम के नाम पर आज जगह-जगह धन-संग्रह किया जा रहा है ,यह कलयुग की विडंबना ही तो है …. और इसके बाद श्री राम पर जब वो बोलने लगे तो लगा कि बाल्मीकी,भास्,कालिदास,भवभूति,केशवदास और तुलसीदास सब एक साथ उपस्थित हो गए हों .

इंदु : अच्छा गोस्वामी तुलसीदास जी के बारे में कुछ बताइए ?

सुमन जी : गोस्वामी जी ने तो समाज को जीने कि राह दिखाई है . तुलसी बाबा कि भक्ति , उनका ज्ञान तो अद्वितीय है ही – कविता भी उनकी लेखनी के स्पर्श से प्रणम्य और वंदनीय हो गई है .वे तो हम सब से इतना ऊँचे उठे हुए हैं कि पूजा में उठे हुए हमारे हाथ उनके पैर के अंगूठे के नाख़ून कि कोर को भी स्पर्श नहीं कर पा रहे हैं …अब सुमन जी के शब्द तुलसी का अभिषेक कर रहे थे .

इंदु : बैसवारा के होते हुए भी यहाँ के अमर सपूत राव राम बख्श सिंह, राना बेनी माधव तह चंद्रशेखर आजाद पर आपकी रचनाएँ नहीं मिलती हैं ?

सुमन जी : हाँ , मुझे यह काम भी अब करना है. मै इन अमर सपूतों के शहीद स्थलों और स्मारकों पर गया हूँ . शहीदों के रक्त को अपने अन्दर जज़्ब करने और उसे संजोने वाली पावन धरा पर तो मुझे पैर धरने में भी बड़ा संकोच हो रहा था – वहाँ तो सिर के बल जाया जाये फिर भी कम होगा .

इंदु : अंतिम प्रश्न के रूप में मैंने इंदिरा गाँधी जी कि शहादत की चर्चा कर दी …

सुमन जी : इंदिरा जी तो दिव्य पौरूष वाली महिला थीं . उनकी क़ुर्बानी तो इतिहास के पन्नों में रक्ताक्षरों से अंकित हो चुकी है …. इस संसार में सोलह श्रृंगार करने वाली महिलाएँ तो बहुत हुई हैं और होती रहेंगी परंतु राष्ट्र के लिए छाती पर सोलह गोलियाँ खाने वाली महिला अकेली इंदिरा जी ही थीं ….. वे तो म्रत्यु का वरण कर अमरत्व की राह पर चली गईं …
अब सुमन जी ख़ामोश थे उनका मौन बोल रहा था – उनकी आँखें बरस रही थीं और वे एक बार फिर से अन्तरिक्ष में निहार रहे थे . कुछ पलों के बाद वातावरण हल्का हुआ . हमने उनसे आशीर्वाद लिया और विदा भी . वे कुर्सी से उतर कर हमे विदा करने को दस कदम हमारे साथ भी चले .यही उनसे मेरी पहली और अंतिम मुलाकात रही .

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अभिधा या व्यंजना


व्यंजना से कविता चमत्कृत हो न हो
पाठक ज़रूर अचंभित हो जाता है।
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व्यंजना और अभिधा का कोई मेल नहीं है।
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दुनिया व्यंजना है यह बात अभिधा को मालूम है।
***
अभिधा व्यंजना से कोसों दूर रहती है।
***
व्यंजना के संसार में अभिधा खिलौना भर है
जब चाहे जैसे खेलो और खत्म कर दो ।
***
अभिधा का खत्म होना व्यंजना के लिए सुखद है।
***
यह बातें सुन लक्षणा मुस्कुरा रही थी।

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मन वसंत


चाह नहीं कोई तितलियों से रंग की
अपने लिए रंग
मैं खुद ही बनाऊँगी
नहीं चाहिए किसी चिड़िया से पंख
उड़ना नहीं है
चलना है मुझे बहुत
क्यों खिलूँ मैं किसी पुष्प की तरह
मेरी जड़ की खुशबू ही
मेरी पहचान है
क्यों लहराऊँ किसी नदी की तरह
मेरा हँसना
बस मेरी तरह है
क्यों करूँ इंतज़ार किसी वसंत का मैं
जब साथ हों अपने
मेरा मन वसंत है।

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